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सोमवार, 12 नवंबर 2012

भाजपा को कौन बचाएगा? - शम्भु चौधरी

भाजपा को कौन बचाएगा? - शम्भु चौधरी भाजपा अध्यक्ष श्री नितिन गडगरी जी दिसम्बर २००९ में भारतीय जनता पार्टी के नौंवें राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए। पिछले दिनों जबसे श्री गडगरी जी का नाम जमीन हड़पने और उनकी कंपनियों पर आर्थिक मामले में जालसाज़ी का आरोप लगे हैं जिसकी सरकारी एजेंसियाँ जांच कर रही है। इसी बीच गडगरी जी को लगा कि उनका दूसरी बार भाजपा का अघ्यक्ष बनने का सपना अधूरा ही रह जाएगा। जिसके लिए उसने सालभर से ही कड़ी मशक्कत कर भाजपा के संविधान तक को भी पलटकर रख दिया। इसलिए उनको कारण-अकारण ही अचानक से दाऊद का नाम याद आ गया। इनका स्पष्ट उद्देश्य था कि भाजपा के नेताओं को जो उनका विरोध पार्टी में कर रहे हैं या संघ के उन कार्यकर्ताओं को जो उनका समर्थन नहीं कर रहें उनको अपने दाऊद से रिश्ते की बात याद दिला सके। इसलिए उन्होंने संघ को यह बताने की जरूरी समझा कि ‘‘स्वामी विवेकानंद और अंडरवर्ल्ड माफिया दाऊद इब्राहिम की आईक्यू यानी बौद्धिक क्षमता समान है।’’ ताकी संघ के नेताओं को यह जानकारी रहे कि उन्होंने जो धन पिछले कुछ सालों में खर्च किया है उसका पाई-पाई वे वसुलकर रहेगें। परिणाम स्वरूप रातों-रात एक मसीहा बन कर श्री गडगरी जी जांचकर लिया और उसने सुबह उठते ही यह बता दिया कि सबकुछ ठीक-ठाक है कहीं कोई गड़बड़ी नहीं हुई है। भाजपा अध्यक्ष के इस दौगले चरित्र ने देश को सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि आखिर में इस भ्रष्टाचार की लड़ाई में हम साथ लें तो किसे लें? सबके सब एक ही हमाम में नंगे होकर नहा रहे हैं। श्री नितिन गडगरी जी को तो भाजपा बचा ले जाएगी पर भाजपा को कौन बचाएगा? यह यक्ष प्रश्न जनता के सामने आ खड़ा हुआ है कि जिस प्रकार भाजपा ने पिछलें कुछ सालों में विपक्ष की भूमिका निभाई है इससे जनता को निराशा ही हाथ लगी है। इसका सबसे बड़ा कारण श्री गडगरी जी को माना जा रहा है। श्री मान ने, न सिर्फ संध को धोखा दिया है। भाजपा के नेताओं को भी धमकाने के लिए आपने सभी विकल्प खुले कर दिए है।

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

धर्मनिरपेक्ष ताकतों का अर्थ क्या हो?

- शम्भु चौधरी

धर्म के आधार पर देश के विभाजन पश्चात व आजादी के बाद तेजी से एक शब्द ‘‘धर्मनिरपेक्षता’’ भारत की राजनीति में अपनी केन्द्रीय भूमिका निभाने लगी। इसके गहराई में जाकर देखा जाए तो हमें ज्ञात होता है कि ‘‘धर्मनिरपेक्षता’’ का अर्थ है एक विशेष धर्म के कट्टरवादी ताकतों को मजबूती प्रदान करना मात्र धर्मनिरपेक्षता का मुख्य लक्ष्य है देश की तमाम राजनैतिक चेहरे धर्मनिरपेक्षता को वोट बैंक की कुंजी मानते हैं और उन कट्टरवादी ताकतों द्वारा संकलित वोटों से खुद की राजनीति को मजबूत बनाये रखना, जो ऐसा करने में सफल रहे हैं वैसे लोग अपने आपको ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ मानते हैं। जबकि दूसरी तरफ हिन्दूवादी कट्टरवादी ताकतों को देश में सांप्रदायिक ताकत माना जाता है। व इसको केन्द्र कर आज देश की राजनीति दो हिस्सों मे स्पष्ट दिखाई देती है। आज सत्ता के बचाये रखने के लिए देश की एक बड़ी राजनीति दल ने इस हथियार का जम कर इस्तेमाल किया है। जब उस दल पर परिवारवाद का आरोप लगा और सत्ता से बहार आ गई तो उसने सांप्रदायिक शब्द का भरपूर प्रचार कर देश के बामदल सहित समाजवादियों तक को अपने पक्ष में ला खड़ा करने में सफलता पा ली। यह बात अलग है कि बामदल की सिद्धांतहीन दलदली राजनीति ने उसको जहाँ देश की राजनीति में हाशिये पर ला खड़ा किया है पर अभी भी इसके सर पर सांप्रदायिकता का भूत सवार है। जब भी संसद में कोई बहस होती है तो वो अपने को इस कदर बचाना चाहती है कि जैसे वो किसी महखाने से मुंह छिपाकर जाना चाहता हो। मानो सबका लक्ष्य एक है कि देश की मुस्लिम कट्टरवादी ताकतों के एक वर्ग को कौन कितना लुभा सकता है इस बात कि हर तरफ हौड़ लगी है। असम की घटना के पश्चात पिछले दिनों देश में जो कुछ भी हमें देखने को मिला इसके साथ ही सरकारी व अन्य राजनीति दलों की टिप्पणियों पर नजर दौड़ाई जाए तो हमें यह बात ही नहीं समझ पा रहे हैं कि देश में बंगलादेशी मुसलमान इतने ताकतवर हो गए कि उनके कुप्रचार से देश की ही असमिया समाज को अपनी ही जमीं, अपने ही वतन में खुद को असुरक्षित महसूस करना पड़ा और बड़ी संख्या में देश के विभिन्न हिस्सों से उनके पलायन से हमें यह तो सोचना ही होगा कि देश में मुस्लिम कट्टरवादी ताकतों ने भारतीय धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक स्वरूप को तार-तार कर दिया है। कुछ इस्लामिक संगठनों न सिर्फ मुम्बई में पाकिस्तान के झंडा ही नहीं फहराया, साथ ही उनके आकाओं ने यह भी ऐलान कर दिया कि अब जल्द ही समूचे भारत में इस्लाम का झंडा फहरा दिया जाएगा। इन मुस्लिम कट्टरवादी ताकतों के सामने हमारी धर्मनिरपेक्षता पलक झपते ही ताश के पत्ते की तरह बिखर कर उनका तमाशा देखता रहा। सरकार की तरफ से कोई कार्यवाही न होकर हिन्दूवादी नेताओं पर अंकुश लगाया जाना इस बात को बल प्रदान करता है कि देश किस कदर एक धर्म विशेष के वोट बैंक की तरफ सिमटता जा रहा है। असम की घटना व असमियों और मणिपुरीयों को जिस प्रकार से भयभीत करने में देश की मुस्लिम कट्टरवादी ताकतों ने अपनी भूमिका निभाई, इससे इस बात में कतई संदेह नहीं रह गया कि अब धर्मनिरपेक्षता की आड़ में सत्ता की राजनीति करने वाली ताकतों को यह बताना जरूरी हो गया है कि ‘‘धर्मनिरपेक्षता’’ वास्तव में वह नहीं कि वह सत्ता से चिपकने के लिए किसी दूसरे दल को सत्ता से अलग रखा जाए। ‘‘धर्मनिरपेक्षता’’ का अर्थ है कि देश में सभी धर्म में समभाव बना रहे, ना कि वह सत्ता को प्राप्त करने व सत्ता से किसी दल विशेष को दूर रखने के प्रयोग में लाया जाना चाहिए। हिन्दुत्वाद से देश मजबूत ही होगा जबकि मुस्लिम कट्टरवादी ताकातों को जितना बल दिया जाएगा देश की सार्वभैमिकता को उतना ही खतरा पैदा होता जा रहा है। मुस्लिम समुदायों के वोटों को लेकर सत्ता का सौदा न किया जाए। यदि इस सौदेबाजी पर तत्काल प्रभाव से रोक न लगाई तो हर प्रान्त भारत महासंध से अपनी सुरक्षा के लिए अलग होने के लिए मजबूर भी हो सकता है।

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

संसद की पवित्रता - शम्भु चौधरी

66वें स्वतंत्रता दिवस के पूर्व संध्या परः

66वें स्वतंत्रता दिवस के पूर्व संध्या पर देश के 13वें राष्ट्रपति महामहिम श्री प्रणव मुखर्जी ने देश के नाम अपने संदेश में कहा कि लोकतांत्रिक संस्थाओं पर प्रहार होने से देश में अव्यवस्था फैल जाएगी। आपने स्वीकार किया कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता का आंदोलन जायज है। जहां एक तरफ आपने विधायिका के महत्व को समझाने का प्रयास किया वहीं दूसरी तरफ आपने जनता के आक्रोश को भी जायज ठहराते हुए संसद को ही नसीहत दे डाली कि कभी-कभी जनता अपना धैर्य खो देती है पर इसे लोकतांत्रिक संस्थाओं पर प्रहार का बहाना नहीं बनाया जा सकता। उपरोक्त संदेश कई तरह से उलझाव पैदा करने वाला है कि महामहिम जी किसे यह बताना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के लिए कौन जिम्मेदार है। संसद का कतरा-कतरा भ्रष्टाचार के बलि चढ़ चुका है। प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह जी एक हाथ में अपने खुद के ईमानदार होने का प्रमाण पत्र लिए, देश को गठबंधन धर्म की मजबूरी बताते नहीं थकते। मानो हमने यह स्वीकार कर लिया है कि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था इतनी लचर और लाचार हो चुकी है कि चोरों को चुनना ही लोकतंत्र का लक्ष्य रह जाता है। जो लोग इस लोकतंत्र के रक्षक बन अपनी आहुति दें वे चोर और जो चुनकर या पिछले दरवाजे से संसद में पंहुच जाए वे सभी ईमानदार और लोकतंत्र के रक्षक एवं विधायिका के निर्माता बन जाते हैं। संभवतः लोकतंत्र की इसी परिभाषा को अपने संदेश के माध्यम से चिन्हीत करना चाहते हैं हमारे राष्ट्रपति महामहिम श्री प्रणव मुखर्जी जी।

पिछले दिनों श्री अण्णा हजारे व उनकी टीम ने रामलीला मैदान में अपना दम तौड़ दिया। कल बाबा रामदेव व उनकी टीम भी दम तौड़ती नजर आई। प्रश्न यह नहीं है कि किसने बाजी मारी या किसने हारी। प्रश्न यह है कि संसद इतने संवेदनशील मामले पर चुप क्यों? संसद के अन्दर चुनकर गये और खुद को चुनावा कर गये नेताओं की लम्बी कतार देश को गुमराह क्यों कर रही है? आश्चर्य की बात है कि लोकतंत्र के प्रहरी संसद के अन्दर 543 सांसद जो जनता के सीधे प्रतिनिधि होते हैं और 245 सांसद जो पिछले दरवाजे से देश के कर्णधार बनकर संसद में पंहुचते है। इन सब ईमानदार और देशभक्तों को आखिर उस समय सांप क्यों सूंध जाता है जब भ्रष्टाचार और काले धन की बात सामने आती है? संसद की गरिमा और इसकी मर्यादा की रक्षा करने वाले ये चुने हुए सांसदों पर जब जनता द्वारा विचारों का हमला होता है तो वे संसद और संसदों की गरिमा की की दुहाई देते नहीं थकते। वहीं जब यही सांसद जनता पर तीखे व्यंग्य करते हैं तो जैसे ‘हम भी रोजा कर रहें हैं। या रामलीला तो हर साल हाती है।’’ जैसी अपमानजनक टिप्पणी करते नहीं थकते तो उस समय इनको अपनी ईमानदारी और संसद की मर्यादा का ख्याल क्यों नहीं आता। वहीं जब कुछ सांसदों पर कोई आक्षेप आता है या इनको चोर-बेईमान कहा जाता है तो इनको संसद की पवित्रता का आभास होने लगता है। संसद लोकतंत्र का पवित्र मंदिर जरूर है पर इसमें बैठे लोगों की मंशा ने इसकी पवित्रता को हर तरह से अपवित्र करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। पता नहीं इनकी देश भक्ति व इनका स्वाभिमान भी उस समय कहां चरने चला जाता है जब चंद लोगों के चलते पूरी संसद अपवित्र नजर आने लगती है?

शम्भु चौधरी
सचिव, राजनैतिक चेतना मंच

सोमवार, 19 मार्च 2012

बंगाल में राज्यसभा का चुनाव


शम्भु चौधरी
कोलकाता, 21 मार्च 2012: आगामी 30 मार्च 2012 को राज्यसभा के लिए पष्चिम बंगाल से पांच सदस्यों के लिए होने वाले चुनाव में बंगाल की तीनों प्रमुख पार्टियों ने अपने-अपने उम्मीदवारों घोषणा कर दी है। जिसमें राज्य की प्रमुख पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने वर्तमान में केंद्रीय रेलमंत्री मुकुल राय, बांग्ला दैनिक ‘संवाद प्रतिदिन’ के वरिष्ठ पत्रकार कुणाल घोष, उर्दू दैनिक ‘अकबर-ए-मसरिक’ के मोहम्मद नदीमूल हक और हिन्दी दैनिक संमार्ग के निदेशक विवेक गुप्ता, कांग्रेस पार्टी की तरफ से कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता अब्दुल मन्नान और माकपा की तरफ से सीटू के महासचिव तपन सेन ने नामांकन पत्र दाखिल किया है।
तृणमूल नेता व राज्य के उद्योग मंत्री पार्थ चटर्जी ने बताया कि मुकुल राय, कुणाल घोष और मोहम्मद नदीम उल हक पार्टी के पहले तीन उम्मीदवार होंगे जबकि गुप्ता चौथे उम्मीदवार के रूप में स्थान लेगें।
विधानसभा के सीटों के हिसाब से तृणमूल कांग्रेस तीन उम्मीदवारों को राज्यसभा भेज सकती है जबकि चौथे उम्मीदवार के लिए उसे अन्य दलों के सहयोग की जरूरत पड़ेगी। विधानसभा में तृणमूल के 185 सदस्य जिसमें से एक सदस्य श्री अजित भुइयां का निधन हो चुका है। वाममोर्चा के 61 सदस्य और कांग्रेस के कुल 42 सदस्य हैं। इन आंकड़ों से यह साफ चिन्हीत होता है एक सीट के लिए सौदेबाजी निश्चित तौर पर किसी एक उम्मीदवार को करनी ही होगी। चुनाव में एक उम्मीदवार को जितने के लिए 49 मतों की जरूरत होगी। कांग्रेस पार्टी ने भी राज्य में ममता के साथ बिगड़ते रिश्ते को हवा देते हुए अपने 42 सदस्यों के बल पर अब्दुल मन्नान का नामांकन भरवा दिया है। निश्चित तौर पर तृणमूल पार्टी का समर्थन इस दल को नहीं मिलना तय है। इस स्थिति में कांग्रेस पार्टी को माकपा के सहयोगी दलों का समर्थन मिलना तय है। सूत्रों के हवाले से यह भी पता चला कि तृणमूल पार्टी के कुछ विधायक पार्टी लाइन से बहार जाकर भी अपना मतदान कर सकते हैं।
वर्तमान राजनीति परिदृश्य में 5 सीटों में से 3 पर तृणमूल व 1 सीट पर माकपा की जीत तय है। पांचवां उम्मीदवार कौन होगा? जिसमें तृणमूल के चौथे श्रेणी के हिन्दीभासी उम्मीदवार हिन्दी दैनिक संमार्ग के निदेशक विवेक गुप्ता उम्मीद लगाए हुए हैं। राज्य की मुख्यमंत्री व तृणमूल नेत्री ममता बनर्जी कहती है कि उनके चारों प्रत्याशी जीत हासिल करेगें तो सवाल यह उठता है कि श्री विवेक गुप्ता को चौथे श्रेणी में क्यों रखा गया?
संख्या बल के अनुसार इस बार वाममोर्चा का एक ही उम्मीदवार पहुंचेगा। इसके बाद भी बाम दलों के पास 12 अतिरिक्त वोट बचेगें। जबकि कांग्रेस को 7 वोट की जरूरत होगी। ऐसे में गणित के आंकड़े किस करवट लेगा अभी कह पाना संभव नहीं हैं।
राज्य की मुख्यमंत्री व तृणमूल नेत्री ममता बनर्जी हिन्दीभासियों का सम्मान करते हुए एक सीट पर हिन्दी दैनिक संमार्ग के निदेशक विवेक गुप्ता को मनोनीत किया गया है।
ताजा समाचारः
कांग्रेस पार्टी के प्रत्यासी वरिष्ठ नेता अब्दुल मन्नान ने अपना नामांकन वापिस ले लिया है। इस प्रकार शेष सभी पांचो उम्मीदवारों का चयन निर्विरोध हो गया। सभी को बधाई।

रविवार, 18 मार्च 2012

जमीन खोती जा रही कांग्रेस पार्टी


कोलकाता से शम्भु चौधरी


पिछले माह पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव व इनके परिणामों पर विभिन्न विद्वानों के विश्लेषण से इस बात के संकेत प्राप्त होते हैं कि कांग्रेस पार्टी में अब कार्यकर्ताओं की जगह नेताओं ने ले ली है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में जिस प्रकार चुनाव प्रचार किया गया। साम दाम दंड भेद का न सिर्फ प्रयोग किया गया कांग्रेस पार्टी ने चुनाव आते-आते वे सभी पत्ते खोल दिये जो इनके धर्मनिरपेक्षता पर भी एक बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है। जातिगत राजनीति से लेकर धर्म आधारित राजनीति ने देश को यह भी सोचने को मजबूर कर दिया कि अब हर चुनाव राजनैतिज्ञ तुष्टिकरण से ही प्रारम्भ होकर धार्मिक तुष्टिकरण पर ही समाप्त होगा। धीरे-धीरे प्रायः सभी राज्यों में मुसलमानों का संगठित मतदान एक निर्णायक की भूमिका निभाने में सझम दिखाई देने लगा है। इसके साथ ही पिछले 50-60 सालों से कांग्रेस पार्टी जिसने इन वाटों पर केन्द्र की राजनीति की अब वह अपने खुद के बुने जाल में उलझती जा रही है। महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल कुछ ऐसे राज्यों की सूची में आ चुके हैं जहाँ कांग्रेस के केन्द्रीय या राज्य के चन्द चापलूस-पदलोलुप नेताओं ने अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को सामने रख संगठन को हमेशा से नुकसान पंहुचाते रहे हैं। महाराष्ट्र में जहाँ शरद पावर ने कांग्रेस से अलग होकर खुद को शक्तिशाली बना लिया तो बंगाल में ममता के कद को नीचा दिखाने व केन्द्र में रहने की मजबूरी ने इस पार्टी की जमीन ही बंगाल से हिला कर रख दी। तमिलनाडु में पिछले 45 सालों से, बिहार और उत्तरप्रदेश में में पिछले दो दशकों से, बंगाल में पिछले 35 सालों कांग्रेस पार्टी सत्ता से बहार हो चुकी है। पंजाब, कर्नाटक, राजस्थान, असम, हरियाणा व देश के कुछ छोटे राज्यों में कांग्रेस अपनी स्थिति को किसी प्रकार बचा पाती है इसका कारण यह नहीं कि वहां इस पार्टी कर जनाधार मजबूत है। इसका कारण है कि अभी वहाँ जनता को कोई अच्छा विकल्प नहीं मिल पाया है। जबकि केरल व त्रिपुरा में माकपा का जनाधार कुछ हद तक कांग्रेस को टक्कर देता रहा है। कांग्रेस पार्टी के जो नेतागण अपने ही राज्यों के मझले नेताओं के पर कुतरते रहे हैं वैसे ही लोग सत्ता को अपनी जागिर बनाये रखने के लिए गांधी परिवार के सामने अपने घुटने टैकने का कार्य करते रहें हैं।
आज जब उत्तरप्रदेश के चुनाव परिणाम ने दो युवाओं की लड़ाई में अखिलेश यादव को जनता ने जो जनमत प्रदान किया वहीं गांधी परिवार की कमाई खाने वाले कांग्रेसियों को करारा झटका भी दिया है। मजे कि बात यह है कि इस पार्टी में इनके खुद के राज्य को मजबूत बनाने की जगह हवा में महल बनाने के लिए नींव बनाई जाती रही है। दिल्ली के गलियारे तक सिमटती कांग्रेस पार्टी आज धीरे-धीरे राज्यों में अपनी जमीन खोती जा रही है। इसका सबसे बड़ा कारण है कांग्रेस पार्टी जनमत पर विश्वास न कर गांधी परिवार तक सिमटती नजर आती है। इससे देश के अन्दर छोटी-छोटी ताकतें अपना सर उठाने में सफल रही है। देश का राजनैतिज्ञ परिदृश्य भी तेजी से बदलता जा रहा है। इसका विश्लेषन कांग्रेस पार्टी को अंततः करना ही होगा। कि वह किस दिशा में जा रही है? राज्य के नेताओं के पर कुतरने के बजाय यदि कांग्रेस पार्टी उनके कद को एक अनुशासन के अन्दर महत्व प्रदान करे और सत्ता प्राप्त करने की जल्दबाजी न कर अपने संगठन को महत्व दे तो संभवतः यह दल भारतीय राजनीति में अपनी पहचान बचा पाएगी अन्यथा इसका हर्ष दिल्ली तक सिमटता चला जाऐगा।

गुरुवार, 15 मार्च 2012

Carton : Railway Budget 2012

Mamta Reaction On Railway Budget 2012

रविवार, 26 फ़रवरी 2012

कार्टून: चल 'संसद" में छुप जाएं!

Cartoon on Indian Parliament

मतदाताओं को जागृत करने के अभियान के दौरान अण्णा टीम के प्रमुख सदस्य श्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि संसद में हत्यारे और बलात्कारी सहित सभी प्रकार के बुरे तत्वों की भरमार हो चुकी है। मौजूदा संसद में 163 सदस्यों पर अपराधिक मामलें चल रहे हैं। इस साफ सुथरे बयान से कुछ राजनैतिक दलों के नेताओं श्री केजरीवाल को पागल तक कहा डाला और इनपर देशद्रोह का मामला चलाने व संसद की गरिमा का हनन करार देते हुए इन पर संसद का अपमान बताया है।