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रविवार, 19 अक्तूबर 2008

असम: हिंदी पर बंदिश लगाने वाले आज सीख रहे हैं हिंदी

गुवाहाटी से विनोद रिंगानिया




राजनीतिक नारेबाजी को छोड़ दें तो व्यावहारिक धरातल पर भारतीय उपमहादेश में हिंदी का उपयोगिता से कोई भी इनकार नहीं कर सकता। वे चरमपंथी अलगाववादी भी नहीं जो हिंदी विरोध को अपने राजनीतिक कार्यक्रम का हिस्सा मानते हैं। असम के अलगाववादी संगठन उल्फा के बारे में भी यह बात सच है।
प्रबाल नेओग उल्फा के वरिष्ठ नेताओं में से हैं। 17 सालों तक चरमपंथियों की एक पूरी बटालियन के संचालन का भार इन पर हुआ करता था। पुलिस और सुरक्षा बलों के लिए सिरदर्द बने अपने मुख्य सेनाध्यक्ष परेश बरुवा के निर्देश पर प्रबाल नेओग ने असम में कई हिंदीभाषियों के सामूहिक कत्लेआम को संचालित किया था। लेकिन वही नेओग आज इस बात को स्वीकार करने से नहीं हिचकते कि वे जल्दी से जल्दी अच्छी हिंदी सीख लेना चाहते हैं।

प्रबाल के हिंदी प्रेम के पीछे है हिंदी का उपयोगिता। उनका कहना है कि भारत सरकार के अधिकारियों और राजनीतिक नेतृत्व के साथ हिंदी के बिना बातचीत की आप कल्पना ही नहीं कर सकते।
पुलिस के हत्थे चढ़ चुके प्रबाल को हाल ही में कारावास से रिहा किया गया था। वे उल्फा के उस गुट का नेतृत्व कर रहे हैं जो अब भारत सरकार के साथ बातचीत के द्वारा समस्या को हल कर लेने का हिमायती है। ये लोग चाहते हैं कि उनका शीर्ष नेतृत्व सरकार के साथ बातचीत के लिए बैठे। हालांकि अब तक परेश बरुवा तथा उल्फा के अध्यक्ष अरविंद राजखोवा की ओर से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं आई है।
प्रबाल नेओग उल्फा के वरिष्ठ नेताओं में से हैं। 17 सालों तक चरमपंथियों की एक पूरी बटालियन के संचालन का भार इन पर हुआ करता था। पुलिस और सुरक्षा बलों के लिए सिरदर्द बने अपने मुख्य सेनाध्यक्ष परेश बरुवा के निर्देश पर प्रबाल नेओग ने असम में कई हिंदीभाषियों के सामूहिक कत्लेआम को संचालित किया था।

प्रबाल का कहना है कि वे हिंदी अच्छी तरह समझ लेते हैं लेकिन बोल पाने में थोड़ी दिक्कत होती है।
हिंदीभाषियों के कत्लेआम के मुद्दे पर उन्होंने कहा कि सभी मुझ पर उंगली उठाते हैं लेकिन जो भी किया गया वह हाईकमान के निर्देश पर ही किया गया था। उनका कहना है कि वे कभी भी प्रत्यक्ष रूप से किसी भी हत्याकांड से नहीं जुड़े रहे।
चरमपंथी नेओग स्वीकार करते हैं कि हत्या उल्फा की गोली से हो या सेना की गोली से, लेकिन जान किसी निर्दोष की ही जाती है।
बातचीत की प्रक्रिया शुरू करने के क्रम में प्रबाल तथा उसके साथियों का सेना तथा सुरक्षा बलों के अधिकारियों से साबका पड़ा। अमूमन राज्य के बाहर से आने वाले इन अधिकारियों के साथ विचार-विनिमय के लिए दो ही विकल्प हैं। हिंदी या अंग्रेजी। इसीलिए प्रबाल नेओग ने अपने साथियों को यह हिदायत दी है कि अभ्यास के लिए रोजाना आपस में हिंदी में बातचीत की जाए। भाषा सीखने का आखिर यह अनुभवसिद्ध तरीका तो है ही।
प्रबाल का कहना है कि राष्ट्रीय मीडिया वाले अपनी सारी बातें हिंदी या अंग्रेजी में ही पूछते हैं।
ऐसे में यदि उनके सवालों का जवाब असमिया में दिया जाए तो राज्य के बाहर वाले उसका मतलब नहीं समझ पाएंगे। इन्हीं कारणों से 'हमारे लिए धाराप्रवाह हिंदी और अंग्रेजी बोल पाना जरूरी हो गया है'।
प्रबाल का कहना है कि वे हिंदी अच्छी तरह समझ लेते हैं लेकिन बोल पाने में थोड़ी दिक्कत होती है।
हिंदीभाषियों के कत्लेआम के मुद्दे पर उन्होंने कहा कि सभी मुझ पर उंगली उठाते हैं लेकिन जो भी किया गया वह हाईकमान के निर्देश पर ही किया गया था। उनका कहना है कि वे कभी भी प्रत्यक्ष रूप से किसी भी हत्याकांड से नहीं जुड़े रहे।
चरमपंथी नेओग स्वीकार करते हैं कि हत्या उल्फा की गोली से हो या सेना की गोली से, लेकिन जान किसी निर्दोष की ही जाती है।


उल्फा के असमिया मुखपत्र स्वाधीनता तथा अंग्रेजी मुखपत्र फ्रीडम में अक्सर 'हिंदी विस्तारवाद' शब्दों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। इन दो शब्दों के इस्तेमाल के द्वारा उल्फा असम में हिंदी की बढ़ती उपयोगिता का विरोध करता रहा है। किसी समय उल्फा ने असम में हिंदी फिल्मों के प्रदर्शन पर भी बंदिश लगाई थी। उन दिनों सिनेमाघर मालिकों को हिंदी फिल्में दिखाने के लिए पुलिस सुरक्षा पर निर्भर रहना पड़ता था।
उल्फा के अलावा असम के पड़ोसी मणिपुर राज्य के चरमपंथी भी हिंदी का प्रबल विरोध करते रहे हैं। असम में चरमपंथियों के हिंदी विरोधी फतवे नाकामयाब हो गए, लेकिन मणिपुर की राजधानी इंफाल में आपको किसी भी सिनेमाघर में हिंदी फिल्में आज भी देखने को नहीं मिलेगी। यही नहीं केबल आपरेटर भी चरमपंथियों के डर से हिंदी चैनलों से परहेज करते हैं।
नगालैंड के अलगाववादी संगठनों द्वारा हिंदी का विरोध किए जाने की बात सामने नहीं आई। एनएससीएन (आईएम गुट) के चरमपंथी सरकार के साथ बातचीत के दौरान इस बात की दुहाई भी दे चुके हैं कि उन्होंने कभी भी भारत की राष्ट्रभाषा का विरोध नहीं किया।
पूवोत्तर के नगालैंड, मणिपुर और मिजोरम में संपर्क भाषा के रूप में हालांकि अंग्रेजी का अच्छा-खासा इस्तेमाल होता है। लेकिन अरुणाचल प्रदेश में हिंदी को ही संपर्क भाषा का स्थान प्राप्त है। इसी तरह मेघालय में भी भले ही पढ़े-लिखे लोग संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हों लेकिन औपचारिक शिक्षा से वंचित आम लोगों के लिए अपने कबीले से बाहर के लोगों से बातचीत करने का एकमात्र साधन हिंदी ही है।
पूर्वोत्तर भारत के पहाड़ी प्रदेशों में बोलचाल की हिंदी का अपना ही अलग रूप है जो कई बार मनमोहक छवियां पेश करता है। जैसे, बस यात्रा करते समय अचानक आपके कानों में ये शब्द पड़ सकते हैं - 'गाड़ी रोको हम यहां गिरेगा'।

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