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शनिवार, 28 जून 2008

Syamanand Jalan [ श्यामानन्द जालान ]

13 जनवरी 1934 को जन्मे श्री जालान का लालन पालन एवं शिक्षा-दीक्षा मुख्यतः कलकत्ता एवं मुजफ्फरपुर में ही हुई हैं। बचपन से राजनैतिक वातावरण में पले श्री जालान के पिता स्वर्गीय श्री ईश्वरदास जी जालान पश्चिम बंगाल विधान सभा के प्रथम अध्यक्ष थे। वकालत का पेशा निभाते हुए रंगमंच के प्रति अपने दायित्व और प्रतिबद्धता को पूरी निष्ठा से निभाने वाले इस रंगकर्मी को ‘नए हाथ’ नाटक के लिए 1957 में सर्वश्रेष्ठ निर्देशन के लिए एवं 1973 में जीवन की जीवन की संगीत नाटक अकादमी द्वारा पुरस्कृत कर सम्मानित किया जा चुका है।
श्री जालान को भारतीय रंगमंच का एक महत्वपूर्ण स्तंभ माना जाता है। बचपन से नाटक से जुड़े श्री जालान एक प्रगतिशील रंगकर्मी, सशक्त अभिनेता एवं सफल निर्देशक हैं। इनकी शुरुआत हिन्दी नाटकों से हुई मगर बाद में बंगला में ‘तुगलक’ के निर्देशन एवं अँग्रेजी में ‘आधे-अधूरे’ के अभिनय के लिए भरपूर सराहना प्राप्त की।
बंगला फिल्म ‘चोख’ के लिए विशिष्ट सहायक अभिनेता का पुरस्कार बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एशोसियेशन द्वारा दिया गया। ‘तरुण संघ’ ‘अनामिका’ एवं ‘पदातिक’ जैसी नाट्य संस्थाओं के संस्थापक निर्देशक श्री जालान भारतीय सांस्कृतिक संघ परिषद - भारत महोत्सव और भारतीय नाटक संघ में कई देशों की यात्रा कर चुके हैं तथा मास्को, बर्लिन, फ्रेकफर्ट, हवाना और कनाडा में आयोजित कई नाट्य-गोष्ठियों में भारतीय रंगमंच का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। आपने टी0बी0 सीरियल ‘कृष्णकांत का वसीयतनामा’ का निर्देशन किया एवं टी0बी0 फिल्म ‘सखाराम बाइंडर’ का निर्देशन भी आपने ही किया है।
सर्वप्रथम आपने हरि कृष्ण प्रेमी द्वारा लिखित ‘मेवाड़ पतन’ नामक नाटक में एक चपला युवती का अभिनय किया था। जिसका निर्देशन किया था। ललित कुमार सिंह नटवर ने, उसके बाद स्काटिश चर्च
कॉलेज में ललित कुमार जी के ही निर्देशन में उपेन्द्रनाथ का ‘अधिकार के रक्षक’ नाटक में अभिनय किया । 1949 से तरुण संघ के अंतर्गत नाटक करने लगे।
आपने तरुण राय से आधुनिक नाट्य विद्या और पश्चिमी नाट्य शैली का परिचय प्राप्त किया। उनके लिखे एक बाल नाटक ‘रूप कथा’ का ‘एक थी राजकुमारी’ के नाम से हिन्दी में अनुवाद और निर्देशन किया, इन्होंने ही बतौर निर्देशक यह इनका पहला नाटक था।
सन् 1955 में भँवरमल जी, सुशीला जी, प्रतिभा जी के साथ मिलकर ‘अनामिका’ की स्थापना की।
सन् 1971 तक का काल जब श्यामानन्द जी ‘अनामिका’ से अलग हुए, ‘अनामिका’ और श्यामानन्द दोनों के जीवनकाल में इस काल के पूर्व तक कई महत्वपूर्ण प्रस्तुतियाँ सामने आई। जिन्होंने ‘अनामिका’ और श्यामानन्द जालान को गौरवपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित किया। उनमें विशेष उल्लेखनीय है। ‘छपते-छपते’, ‘लहरों के राजहंस’, ‘शुतुरमुर्ग’ तथा ‘इन्द्रजीत’ इन चारों के निर्देशक श्यामानन्द जालान थे। श्यामानन्दजी की एक और प्रस्तुति ‘विजय तेन्दुलकर’ के इस नाटक को उन्होंने सर्वथा भिन्न शैली में प्रस्तुत किया।
‘अनामिका’ में श्यामानन्द की यह अंतिम प्रस्तुति थी। इसके बाद कुछ व्यक्तिगत कारणों से आप ‘अनामिका’ से अलग हो गए। सन् 1972 में उन्होंने ‘पदातिक’ नाम से एक अलग संस्था को जन्म दिया। जिसके तत्वाधान में शुरूआती वर्ष में ‘गिधाड़े’, ‘सखाराम बाईपुर’, ‘हजार चैरासी की माँ तथा शकुंतला’ नाटकों का संचय किया गया। ‘पदातिक’ बन जाने के बाद कलकत्ते के हिन्दी रंगमंच में नए दौर की शुरुआत हुई। आज कोलकात्ता जैसे शहर में ‘पदातिक’ एक शिक्षण संस्थान के रूप में काफी चर्चित हो गई है। जिसका एक मात्र श्रेय श्री श्यामानन्द जी जालान को ही जाता है।
श्यामानन्द जालान 'पदातिक' की प्रस्तुति


1949- नया समाज, 1950- विवाह का दिन, 1951- समस्या, 1952- अलग अलग रास्ता, 1953- एक थी राजकुमारी, 1954- कोणार्क, 1955- चंद्रगुप्त, 1956- हम हिन्दुस्तानी है, 1956- संगमरमर पर एक रात, 1956- सत्य किरण, 1957- नदी प्यासी थी, 1957- पाटलीपुत्र के खंडहर में, 1957- नये हाथ, 1958- अंजो दीदी, 1958- नवज्योती के नयी हिरोइन, 1958- नीली झील, 1959- जनता का शत्रु, 1959- कामायनी (डांस ड्रामा), 1960- आशाढ़ का एक दिन, 1961- घर और बाहर, 1963- शेष रक्षा, 1963- छपते छपते, 1964- मादा कैक्टस, 1966- लहरों के राजहंस, 1967- शुतुरमुर्ग, 1968- मन माने की बात, 1968- एवम् इंद्रजीत, 1970- आधे अधूरे, 1971- पगला घोड़ा, 1972- पंछी ऐसे आते हैं, 1972- तुगलक (बांग्ला),1973- सखाराम बाइंडर, 1977- गुड वुमन आफ सेटजुआन, 1978- हजार चैरासी की माँ, 1980- कौवा चला हंस की चाल, 1980- शकुंतलम्, 1981- पंक्षी ऐसे आते हैं, 1982- उद्वास्त धर्मशाला, 1982- बीबियों का मदरसा, 1983- आधे अधूरे, 1985- मुखिया मनोहरलाल, 1987- कन्यादान, 1987- क्षुदितो पाशाण, 1988- राजा लियर, 1989- बीबियों का मदरसा, 1991- सखाराम बाइंडर, 1992- आधार यात्रा, 1995- रामकथा रामकहानी, 1998- कौवा चला हंस की चाल, 2000- खामोश अदालत जारी है, 2006- माधवी, 2008- लहरों के राजहंस।
नोट: निर्देषक और अभिनेता के रूप में इन नाटकों में श्री श्यामानन्द जालान की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
संदर्भः ‘मंचिका’ विकासोत्सव विशेषांक मारवाड़ी युवा मंच और 'पदातिक' संपर्क: 9830059978

रविवार, 22 जून 2008

इंसान

जिन्दगी को बार-बार 'खोज' देखो यहाँ
ये बड़ा रत्न अनमोल, 'तरास' देखो यहाँ ।
बन प्रकाश बाती, 'जल' देखो यहाँ,
जिन्दगी को एक बार 'जळा" देखो यहाँ ।।

जिन्दगी तराजू है, 'तौळ' देखो यहाँ,
ये बड़ी पहेली है, 'मोळ' देखो यहाँ ।
हर चौराहे पे खड़ा 'शैतान' देखो यहाँ,
दीप न जले तो, 'हैवान' देखो यहाँ ।।

आँसुओं के बीच 'मेहमान' देखो
माँ के दर्द में 'भगवान' देखो यहाँ ।
काँटों में भी खिलता 'फूल' देखो यहाँ,
जहर पी के भी जीता 'इंसान' देखो यहाँ ।।

सोमवार, 16 जून 2008

सभ्य समाज के पहरेदारों!


इटावा जिले के एक गांव में जमीन के विवाद में वहां की स्‍थानीय पुलिस ने विवाद को समाप्त करने के लियें जो कार्य किया उससे यह सिद्ध कर दिया कि निजाम चाहे जो भी हो लेकिन पुलिस की कार्य प्रणाली में कोई बदलाव नही आने वाला है । थानों में बडे-बडे बोर्ड लगाकर मानवधिकार का पाठ पढाने वाली पुलिस यहां पर सरे राह पुलिस मानवधिकार को धता बता रही है । एक महिला (जिसे सभ्‍य समाज मे अबला भी कहा जाता है) के बाल पकड़ कर पिटायी करती हुयी ले जा रही है । साभार : दैनिक जागरण ।

सभ्य समाज के पहरेदारों!
देखो मानव आज,
इनकी भृकुटी तनी हुई है,
चहरे पे रोआब,
मानो कोई जीत लिया हो
सारा हिन्दुस्तान।
बात-बात में अड़ जाते हैं
सत्ता की ले धार....
इनको सबक मिलेगी तब,
गूंगी संसद में होगी,
जब महिलाओं की आवाज। - शम्भु चौधरी

भोपाल तीन काल

-1-

चलती ट्रेनों में,
जिन्दा लाशों को ढोनेवाला,
ऎ कब्रगाह- भोपाल!
तुम्हारी आवाज कहाँ खो गई?
जगो और बता दो,
इतिहास को |
तुमने हमें चैन से सुलाया है,
हम तुम्हें चैन से न सोने देगें।
रात के अंधेरे में जलने वाले,
ऎ श्मशान भो-पा-ल....
जगो और जला दो
उस नापाक इरादों को
जिसने तुम्हें न सोने दिया,
उसे चैन से सुला दो। [प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र: 28 दिसम्बर1987]

-2-

वह भीड़ नहीं - भेड़ें थी ।
कुछ जमीन पर सोये सांसे गिन रही थी।
दोस्तों का रोना भी नसीब न था।
चांडाल नृत्य करता शहर,
ऎ दुनिया के लोग;
अपना कब्रगाह या श्मशान यहाँ बना लो।
अगर कुछ न समझ में न आये तो,
एक गैसयंत्र ओर यहाँ बना लो।
मुझे कोई अफसोस नहीं,
हम तो पहले से ही आदी थे इस जहर के,
फर्क सिर्फ इतना था,
कल तक हम चलते थे, आज दौड़ने लगे।
कफ़न तो मिला था,
पर ये क्या पता था?
एक ही कफ़न से दस मुर्दे जलेगें,
जलने से पहले बुझा दिये जायेगें,
और फिर
दफ़ना दिये जायेगें। [प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र: 02 दिसम्बर1987]


-3-

भागती - दौड़ती - चिल्लाती
आवाज...
कुछ हवाओं में, कुछ पावों तले,
कुछ दब गयी,
दीवारों के बीच।
कुछ नींद की गहराइयों में,
कुछ मौत की तन्हाइयों में खो गई।
कुछ माँ के पेट में,
कुछ कागजों में,
कुछ अदालतों में गूँगी हो गयी।
गुजारिश तुमसे है दानव,
तुम न खो देना मुझको,
जहाँ रहते हैं मानव। [प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र: 5 नवम्बर 1988]

-शम्भु चौधरी, एफ.डी. - 453/2, साल्टलेक सिटी, कोलकाता - 700106
email; ehindisahitya@gmail.com

सोमवार, 9 जून 2008

कारगिल

विधवा! विधवा न कहलाना,
तेरे माथे का सुहाग
अमर-अमिट हो लहरायेगा;
फूल खिलेगें उस धरती पर
जहाँ हमने शीश कटाया है।
रणभूमि हो या जन्मभूमि
बलिदान उसी का लेती है,
जो शीश कटाने जाते हैं,
माँ शीश उसी का लेती है।
तेरी ममता, तेरी छाया,
तेरे आँचल का श्रृंगार,
घर-घर में अब याद करेगा
सारा हिन्दुस्तान।
विधवा! विधवा न कहलाना,
तेरे माथे का सुहाग
अमर-अमिट हो लहरायेगा;
फूल खिलेगें उस धरती पर
जहाँ हमने शीश कटाया है। [karagil]
-शम्भु चौधरी, एफ.डी. - 453/2, साल्टलेक सिटी, कोलकाता - 700106

चूँड़ियों की खनक

चूँड़ियाँ पहन बैठे वतन के पहरेदारों!
चूड़ियों की खनक तो सुनो,
ये तेरी ही माँ-बहनों की है।
जो सड़कों पे खड़ी मांग रही है,
देश की रक्षा,
संसद में सीट,
बच्चों की सुरक्षा।
गर नहीं दे सकते,
संसद खाली कर दो।
अब तुम्हें नहीं देना है,
उनको आरक्षण,
नहीं देना है उसे मताधिकार,
उठो! उठो! पकड़ लो कलम बस
सुना दो इन्हें चुड़ियों का भैरवी राग।
-शम्भु चौधरी, एफ.डी. - 453/2, साल्टलेक सिटी, कोलकाता - 700106

एक गीत: आसमान को छू लें

आओ हमसब मिल, आसमान को छू लें।
चन्दामामा से मिल सब,
दूध-बतासा ले लें।
चुन-चुनकर 'तारे' सब,
झोली में हम भर लें,
आओ हमसब मिल, आसमान को छू लें।
सूरज की किरणों से मिल,
नई राह दिखलायें,
प्रकाश ज्ञान का फैले,
ऎसा मार्ग बनायें।
आओ हमसब मिल, आसमान को छू लें।
बादल के ओटों में छुप-छुप
आँख मिचौली खेलें,
बरस रहे बादल को,
होटों से हम पीं लें।
आओ हमसब मिल, आसमान को छू लें।
पौ फटने से पहले ही हम
नये गीत को रच लें,
चन्दामामा-तारे सब,
रंगों से हम भर लें,
आओ हमसब मिल, आसमान को छू लें।
स्वर की रचना,
नित्य नवगीत बनाना,
नाच रहे हो कृष्ण-कन्हाई
ऎसे भाव जगाना,
आओ हमसब मिल, आसमान को छू लें।
-शम्भु चौधरी, एफ.डी. - 453/2, साल्टलेक सिटी, कोलकाता - 700106

ई-हिन्दी साहित्य सभा' द्वारा वर्ष 2008-09 का ब्लॉग पुरस्कार


ई-हिन्दी साहित्य सभा' द्वारा वर्ष 2008-09 के लिये श्रेष्ट ब्लॉगधारक/संचालक को 500/- रुपये की धनराशी (पाँच अलग व्यक्ति को अलग-अलग) से पुरस्कृत किया जायेगा। आप अपनी या किसी अन्य के ब्लॉग के विषय में यहाँ प्रविष्टी जमा करा सकते हैं । यहाँ जमा प्रविष्टियोँ में से ही पाँच व्यक्तियों को पुरस्कृत किया जायेगा। -- शम्भु चौधरी

कुछ शर्तें:-
1.प्रविष्टियोँ जमा करने की अंतीम तारीख: 30.08.2008 है।
2.प्रतियोगियों को अपना पूरा परिचय,ई-मेल पता, फोन नम्बर देना अनिवार्य होगा।
3.जिस ब्लाग से आपकी प्रविष्टी जमा होगी, उस ब्लाग से जूड़ी सभी ब्लाग्स को एक ही माना जायेगा।
4.चुने हुये पाँच ब्लागधरकों में से एक को राष्ट्रीय विजेता घोषित किया जायेगा,
जिसका चयन तीन सदस्यों की एक टीम करेगी। उसे 'ई-हिन्दी साहित्य सभा' द्वारा सम्मानित किया जायेगा।

शब्दों का अध्ययन

जीवन में मनुष्य के पास एक अनमोल खजाना है, जिसे हम शब्दों का भंडार भी कह सकते हैं। संसार की किसी भी भाषा को हम लें , साहित्य से ही उस समाज की संस्कृ्ति - समृद्धी का पता चलता है। साहित्य बिन भाषा नहीं लिखी जा सकती। भाषा का आधार भले ही किसी भी लिपि में क्यों न हो, उसमें भरे हुए शब्दों का भंडार ही उस समाज की संस्कृति को बचाये रखने में समर्थ हो सकती है। अन्यथा मनुष्य जीवन पशु समान हो जाता, या पशु जीवन यापन करता। हम कभी-कभी इन शब्दों के कारण कई जगह हार जाते हैं , सम्मान भी पाते हैं। परिवार में कई बार आपसी कलह भी देखने को मिलते हैं। परिवार टूटते और बिखर जाते हैं।
माता-पिता कुंठित हो जाते हैं, पति-पत्नी के जीवन में कलह भर जाता है, दो प्रेमियों में विवाह तो कहिं तलाक हो जाता है। सास-बहु की तकरार में न जाने कितनी बहुओं ने अपने जीवन को स्वाह कर दिया । जीवन का उतार-चढ़ाव, कटुता, व्यंग्य, हास्य, प्रेम-पश्चात्ताप, युद्ध-शान्ति ये सभी शब्दों के साथ बनते और बिगड़ते हैं। हम जब महाभारत में 'कामधेनु' विनोद व्यंग्य की कथा याद करते है तो इसका परिणाम पार्वती को "द्रोपदी" के रूप में पाँच भाइयों की पत्नी बनकर पश्चाताप करना पडा़ था, पुनः द्रोपदी के कटाक्ष " अन्धा का बैटा अंधा" कहने का परिणाम भी भरी सभा में भुगतना पड़ा था। हम यह मान लेते हैं कि हम जो कुछ कहते हैं वह सही है, या वे ही सही है, या उतना ही सही है - यह सोचना सामने वाला आपकी बात को किस तरह या किस रूप में ग्रहण करता है, पर ही निर्णय लिया जा सकता है कि आपकी बात किस हद तक सही है और सही है भी कि नहीं।
कलिंग युद्ध में अशोक का हृदय परिवर्तन, सिकन्दर और पोरस की लडा़ई, हिटलर का प्रेम विवाह एवं सुहागरात के रात्री ही जीवन की समाप्ती, सिद्धार्थ का बुद्ध बनना, रावण द्वारा सीता का हरण, विभेषण द्वारा रावण को समझाना एवं लंका का त्याग, द्रोपदी का चीरहरण, महाभारत में 'अश्वातामा मारो गयो' , कर्ण की दानवीरता, राजा हरिश्चन्द्र का त्याग, एकलव्य की गुरू दक्षिणा, ईसा का सूली पर चढ़ना, अथवा जितने भी प्रकार के धार्मिक ग्रन्थ भले ही किसी भी धर्म के हों ये सभी शब्दों के अनुमोल भंडार से भरा हुआ हैं, एक-एक शब्दों के आज भी कई-कई माने निकाले जार रहें हैं, उपरोक्त सभी घटनायें या ऎसी ओर भी घटनायें शब्दों से पटा पड़ा है। जिसे ज्ञान का सागर नहीं समुद्र कहा जा सकता है। आपकी इच्छा शक्ति इस बात पर निर्भर करती है कि आप इस सागर से कितना कुछ ले पाते हैं। आज के युग में तो यह ओर भी आसान हो गया है, शब्द जानने की जरूरत भर ही आपको उस शब्द से जूड़ी तमाम जानकारी खुद-व-खुद आपके सामने एकत्र हो जाती है। बस हमें सोचने भर की देर है। परन्तु इस ज्ञान का प्रयोग जब हम अपने स्वार्थ के लिये करने में लग जाते हैं तो शब्दों का अर्थ बदल जाता है। एक किसान के शब्दों में जो स्वच्छता झलकती है, वहीं शिक्षित व्यक्ति के स शब्दों में स्वच्छता हमें खोजनी पड़ती है। एक बच्चे का तू-तू और हमलोगों द्वारा किया गया तू-तू में अन्तर शब्दों का नहीं , परन्तु बच्चे के शब्दों में जो स्नेह झलकता है वहीं हमलोगों के शब्दों में विवाद को जन्म देने की बात सामने आती है। हमालोगों के जीवन में भी कई ऎसे क्षण आते हैं हम किसी बात पर अति भावुक हो जाते तो वहीं किसी अन्य बात पर हँसने या रोने लगते हैं यह क्रिया शब्द के प्रभाव को हमारे जीवन में दर्शाती हैं। इसके लिये हमें इस बात का ज्ञान होना जरूरी हो जाता है कि हम उस शब्द को ग्रहण कर पा रहें हैं कि नहीं। उदाहरण के तौर पर एक बंगलाभाषी किसी बात को ग्रहण कर हँसने लगता हो, तो वहीं खड़ा एक अंग्रेज यह सोच में पड़ जाता है कि वह व्यक्ति आखिर किस बात पर हँसा।
वैज्ञानिक तौर पर हम इसे निम्न श्रेणी में विभक्त कर सकते हैं।
1. स्वयं पर : जब किसी घटना का वृतांत आप दूसरे को सुनाते हैं, तो आप स्वयं भी भावुक हो जाते हैं।
2. अन्य पर : जब कोई अन्य आपको कोई घटना का वृतांत सुना रहा होता तो , उसके सामने आप भावुक होने का दृश्य पैदा तो करते है परन्तु मन में संतोष जाहिर करते हैं, कि जो हुआ अच्छा हुआ। जबकि सामने वाला आपके सहानुभूती से प्रभावित हो रोने लगता है।
3.अपने और दुश्मन की बात पर एक तरफ़ हम रोने लगते तो दूसरी तरफ खुशी का इजहार करते हैं।
4.खेल के मैदान में हार-जीत पर भी अस तरह की प्रतिक्रिया हमें देखने को मिलती है।
5.कई बार एक बात को सुनकर भी हम गम सह लेते हैं और समारोह में या परिवार के बीच उस घटना को मामूली मान कर हँसने का नाटक करते हैं, परन्तु एकांत में जाते ही फूट-फूटकर रोने लगते हैं।
इस तरह की कई क्रियाओं का अलग-अलग अध्ययन किया जा सकता है। जिससे हमें जीवन के महत्वपूर्ण गूढ़ तत्व प्राप्त हो सकते हैं। - शम्भु चौधरी [09-06-2008]

रविवार, 8 जून 2008

राजस्थानी कविता: म्हानै कईयाँ भूल्या रे!

मेरी पहली राजस्थानी कविता जिसे 4 मार्च 1987 को लिखी थी। यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ।
कोई गलती हो तो जानकारी देने की कृपा करेगें। - शम्भु चौधरी

कठे से थे आया रे, कठे थे जाओ रे,
एक बार देखने म्हाने भी आओ रे।
शेखावटी री हेल्यां, जोधपुर री छांव रे,
जयपुर री माया, बालू री टींला पर,
पानी भी न पायो रे।
कठे से थे आया रे, कठे थे जाओ रे,
एक बार देखने म्हाने भी आओ रे।
केरीयों रे खेत, सांगरी बचाओ रे,
फाँफरो रे देश, बाजरो भी रोयो रे,
थे तो म्हाने भूल गया,
म्हैं कईयाँ भूलाँ रे।
कठे से आया रे, कठे थे जाओ रे,
एक बार देखने म्हाने भी आओ रे।
रूँधती आवाज सूँ, आँसू कोनी गिरा,
वेश भुलाय, देस भुलाय,
भाषा कईंयाँ भुलाय रे...
थे तो म्हानै भूल गया
म्हैं कईयाँ भूलाँ रे
आपणो छोड़ थे,
परदेश कईयाँ बसायो रे,
छोड़-छोड़-छोड़ - एक दिन आओ रे।
कठे से थे आया रे, कठे थे जाओ रे,
एक बार देखने म्हाने भी आओ रे।

-शम्भु चौधरी, एफ.डी. - 453/2, साल्टलेक सिटी, कोलकाता - 700106

अंधेरे में.......

इंसान बना एक दिन
खोज रहा था मैं -
अंधेरे में....
भटकती हुई गुफाओं में,
गुंजती हुई हवाओं में,
समुद्री तुफानों में,
मन्दिर-मस्जिद, गुरुद्वारों में
गिरजा, वीणा-सितारों में
तबला, ढोल-नगाड़ों में
संसद के गलियारो में
कानून के पहरेदारों में
सत्ता के हिस्सेदारों में
इंसान बना एक दिन
खोज रहा था इंसान।
अंधेरे में....
[प्रकाशित - दैनिक विश्वमित्र : 13 जनवरी 2000]
-शम्भु चौधरी, एफ.डी. - 453/2, साल्टलेक सिटी, कोलकाता - 700106

श्रद्धांजलि

अन्तिमयात्रा के विदाई समारोह में,
भावभीनी श्रद्धांजलि।
बीती बातों को याद कर,
श्मशान घाट पर सब
एक-दूसरे को सुना-बता।
कितना गहरा संबंध ?
सबके सब आत्मप्रसंसा में लगे,
कोई अपनी तो कोई उनकी,
कुछ देर में लकड़ियां जलकर,
राख का ढेर हो चुकी थी
अवशेष के नाम पर बचा था-
मांस का एक लोथड़ा,
कुछ यादें, कुछ बातें,
हाथ जोड़ - सहज ही लोट जाना
सबको अच्छा लगता है।
पंचतत्व में विलिन
आग की लपटों से लिपटा
एक पूरा शरीर -
जिसे कल तक खुद पर गुमान था,
आज चुपचाप पड़ा था
सच! बड़ा दुर्लभ होता है।
दुश्मन भी दोस्त बन जाते हैं
सांत्वना के शब्द
स्मृति पटल से खोज दे देते हैं
विदाई....
भावभीनी श्रद्धांजलि।


-शम्भु चौधरी, एफ.डी. - 453/2, साल्टलेक सिटी, कोलकाता - 700106

बन्धन

किताबों के पन्नों में,
धगे के बंधन में,
सहारा सिर्फ इतना सा,
भावना का, विचारों का,
रिश्ते जुड़ते हैं, टूटते हैं,
बनते और बिगड़ते हैं;
टूटता है दिल अपना
कुछ खुद टूटते हैं,
कुछ तोड़ दिये जाते हैं,
मैं तो दोषी सिर्फ इतना ही,
शब्दों को तोड़ता नहीं
जोड़ता हूँ।
-शम्भु चौधरी, एफ.डी. - 453/2, साल्टलेक सिटी, कोलकाता - 700106

शनिवार, 7 जून 2008

हाँ! मैं आधुनिक इंसान हूँ।

हाँ! मैं आधुनिक इंसान हूँ।
आधुनिक जो हो गया हूँ;
वन को काट कर,
जल को गंदा कर,
पर्यावरण को प्रदुषित कर,
वातावरण को दुषित कर
हाँ! मैं आधुनिक इंसान हूँ।

रिस्ते को तौड़कर,
अपने-पराये को भूल,
सुख-दुःख को त्याग,
अपने और सिर्फ अपने ही
स्वार्थ में खोया हुआ हूँ।
हाँ! मैं आधुनिक इंसान हूँ।

करता हूँ मानवता की बात,
निद्वंद्व बन,
खा जाता हूँ वेजुबानों को
और जपता ....
मानव.. मानव,
हाँ! मैं आधुनिक इंसान हूँ।

निर्दोषों की हत्या करता,
दोषी को पनाह देता हूँ,
मेरा नाम है "मानवाधिकार"
इसलिये मानवता के नाम पर
मानवता की हत्या करता हूँ।
हाँ! मैं आधुनिक इंसान हूँ।
-शम्भु चौधरी, एफ.डी. - 453/2, साल्टलेक सिटी, कोलकाता - 700106

निर्निड़

माँग रहा रोटी टूकडा़, करके अनशन आज।
कई दिनों से भूखा-प्यासा,
भटक रहा तेरे दर पर
पग-पग, डग-डग को सेहजा,
दाने-दाने -- चुग-चुग कर
बचपन को पाला-पोसा।
खुद भूखा रह भूख मिटाई थी
आज बडा़ हो, बड़ा निष्ठुर हो चुका
कितनी आस लगाई थी।
घर में रोटी-पानी होगी
आंगन में धूप सुहानी होगी,
बच्चों से चहकेगा आंगन,
मन में कई कहानी होगी।
पर तरस गया....
टुकड़े-टुकड़े को,
भूखा-प्यासा, तिल-तिल को,
आँखें धंस गई, आंत अकड़ गई,
गाल दुबक गये,
पाँव कांप गये,
कम्बल, चादर, पलंग चटक गये,
सूख गये आँसू नाद।
अपने घर हुआ निर्निड़;
माँग रहा रोटी टुकड़ा, करके अनशन आज।
-शम्भु चौधरी, एफ.डी. - 453/2, साल्टलेक सिटी, कोलकाता - 700106

काश! एक पुत्री होती....

मानवीय वेदना का एक क्षण
किसी को, किसी से, कोई मतलब नहीं;
हर कोई अपने आप में खोया हुआ है।
आकाश में तारों का चमकना,
दिन और रात को
सूरज और चाँद का समय पर आना,
इनको हमारी वेदना से;
लगाव इतना है कि ये हमें;
वक्त का एहसास करा जाते हैं।
हम! इनके इशारे पर नाचने-गाने लगते हैं।
परन्तु पास के एक कमरे में पड़ा एक इंसान,
इस तड़पन से कि कोई उन्हें देखने एक बार
कमरे में आये तो सही।
दिनभर की हलचल में सिर्फ़,
दिन में दो बार कमरे में आता है,
रामु काका,
दे जाता है एक अदद रोटी का टुकडा़
थोडा़ नमक, एक प्याज;
साथ में एक गिलास पानी,
और दे जाता था बासी समाचार।
दिन इसी तरह ढल जाता था।
एक दिन 'वृद्धाश्रम' का समाचार देख
जा पहुंचा मैं भी 'वृद्धाश्रम'
तब मुझे लगा,
पुत्र की चाहत कितनी बुरी है
काश! एक पुत्री होती।
-शम्भु चौधरी, एफ.डी. - 453/2, साल्टलेक सिटी, कोलकाता - 700106

देखो ! हम कितने सभ्य हो चुके हैं।

देख....मानवीय सभ्यता का यह दौर!
जहाँ शिक्षित हो इंसान,
शोषण कर रहा इंसानों को,
सभ्यता का दे नाम।

देख....मानवीय सभ्यता का यह दौर!
जहाँ असभ्य बनता जा रहा इंसान,
नंग-धड़ंग हो नाच रहा है,
सभ्यता का दे नाम।

देख....मानवीय सभ्यता का यह दौर!
शहर के रहने वाले;
गांवों की तुलना में,
कहिं ज्यादा दिखते हैं परेशान।
रिश्ते- नाते सबके सब हो चुके हैं
एक दूसरे के हैवान।
किसीको कुछ भी पता नहीं।
कौन किसको कब 'खा' जायेगा,
सभ्यता का दे नाम।

देख....मानवीय सभ्यता का यह दौर!
हम सभ्य हो चुकें हैं इतना कि......
खुद के बच्चे हम से बिछुड़ते जा रहे,
बुढ़े माँ-बाप खोज रहें हैं एक आशियाना।
पत्नी बात नहीं कर पा रही।
देखो! कितने सभ्य हो चुके हैं हम।
हमारी वेशर्मियत कई ह्दों को पार करती जा रही ।
एक-दूसरे के इज्जत के प्यासे हो चुके हम।
फिर भी चुपचाप सहते सब जा रहे हैं।
देखो ! हम इतने सभ्य हो चुके हैं,
कि सभ्यता भी हमसे शर्माने लगी
सभ्यता का दे नाम।

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मानवीय संवेदना का एक पल
कितना भयानक हो चला है।
माँ-बाप, भाई-बहन, पति-पत्नी,
ये तो हो चुके पुराने,
सबके सब तलाश रहें।
आज एक नये रिश्ते।

-शम्भु चौधरी,
एफ.डी. - 453/2, साल्टलेक सिटी,
कोलकाता - 700106