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रविवार, 17 फ़रवरी 2008

पत्रकारिता और मारवाड़ी समाज:

मारवाड़ी देस का न परदेस का भाग - 6 लेखक- शम्भु चौधरी
पत्रकारिता और मारवाड़ी समाज:

मारवाड़ी समाज में पत्रकार तो बहुत हैं, परन्तु पत्रकारिता का अभाव है। समाज प्रेस तो खरीद सकता है, परन्तु कलम नहीं। समाज का एक धड़ा यह मानता रहा कि वह प्रेस का मालिक बनकर एवं अपनी कारों में प्रेस का बिल्ला चिपका कर समाज में शोहरत हासिल कर 'अंधों में काना राजा' वाली कहावत चरितार्थ कर रातों-रात साहित्यकार, पत्रकार, लेखक या फिर संपादक बन जाएंगे। ऎसे लोग सामाजिक संस्थाओं के द्वारा पूज्यणीय भी बन जाते हैं, जबकि न तो समाज को इनसे कोई लेना-देना होता, न ही इन्हें समाज से। अपने समाचार पत्रों में उन समारोह की फोटो छप जाने व सुबह कुछ मित्रों के फोन आ जाने भर से ही इनकी पत्रकारिता जीवित रहती है। विज्ञापनदाताओं और विज्ञापन की राशी इस बात का मापदण्ड होती है कि वे किसके समारोह में शामिल हो, या किसे अपने कार्यक्रमों में बुलाये। इनका काम कई बार राजभवन में आये नेताओं की जी-हजुरी करने और शहर के कुछ चुने हुए विज्ञापन दान-दाताओं को बुलाकर उनकी फोटो उतारना, उनका कोई सरकारी काम अटका पड़ा हो तो उसे सलटाने के लिये मोल-तौल कराना, किसी को सम्मानित करा देना, किसी को भामाशाह घोषित करा कर उस व्यक्ति से मोटी रकम वसुल कर लेना यह इनका मुख्य व्यापार रहता है। पत्रकारिता के नाम पर ये समाज के कलंक है, जो खुद तो बदनाम होते ही हैं, साथ ही समाज की गलत तस्वीर इतर समाज के समक्ष रख, पूरी की पूरी कौम को बदनाम करने में इनको जरा भी हिचक नहीं होता, पर मन को थोड़ा शुकून तब मिलता है कि इन सबके बीच कुछ अच्छे लोग भी बचे हुये हैं, इनमें स्व। रामनाथ गोयनका का नाम लिखा जा सकता है, और कुछ ऎसे उद्योगपति जो इस क्षेत्र को अपना आर्थिक सहयोग देकर साहित्यकारों, लेखकों, कवि, पत्रकारों का पोषण करते हैं, देश में ऎसे समाचार पत्रों की संख्या कम है, 20 वर्ष पूर्व की एक घटना मुझे याद आती है, उस रात मैं भी गुवाहाटी के एक होटल में ठहरा हुआ था, जब कामरूप चेम्बर आफ कॉमर्स के तत्कालीन अध्यक्ष शंकर बिरमीवाल की हत्या 'अल्फा' वालों ने कर दी थी, सुबह के समाचार इस घटना से रंगे पड़े थे, समाज के लोग सड़कों पर उतर पड़े थे, चारों तरफ भय का वातावरण बना हुआ था। समाज के कूछ लोग मूझसे आकर मिले और असम की सारी स्थिति की जानकारी दी, मैंने यह तय किया कि ' अल्फा' के इस आतंक को देश के सामने रखा जाय, कोलकाता आकर अपना पहला लेख तैयार कर समाज के इन तथाकथित समाचार पत्रों के मालिकों से मिलता रहा, सबने एक स्वर में कहा कि अल्फा के खिलाफ वे अपने समाचार पत्र में कुछ भी छाप नहीं सकते, मुझे काफी हताशा का सामना करना पड़ा, उन दिनों कोलकाता के एक समाचार जिसे रामावतार गुप्ता जी चलाते थे, उनके पास गया, उन्होने कहा कि मैं उपाध्यायजी से मिल लूँ। मुझे देखकर उपाध्याय जी ने कहा 'तुम मारवाड़ी हो?' मैने कहा हां, तो उन्होंने पास पड़े एक कागज को लिया, मुँह से पान की पीक उस कागज पर थूंकी, कागज को मोड़कर नीचे पड़े रद्दी के टोकरी में डालते हुऎ बोले, रखकर जाओ, कल और लिखकर लाना। मैंने पूछा आप एक बार देख लेते तो अच्छा रहता, उन्होने कहा कल अखबार में देख लुंगा। सच! दूसरे दिन 'सन्मार्ग' के तीसरे पृष्ठ पर "असम में अल्फा का आतंक" नामक शीर्षक से लेख छप चुका था, असम से दूसरे दिन समाचार आया, इस लेख की काफी प्रतिक्रिया हुई है, दूसरे दिन तो असम में संन्मार्ग हवाईजाहज से ऊतर पाया, तीसरे दिन ही इस पर अल्फा वालों ने पाबंदी लगा दी, तब तक बिहार के श्री कैलाशपति मिश्र ने संसद में सन्मार्ग को संसद के पटल पर रखते हुए सरकार से इस दिशा में स्पष्टीकरण की मांग कर डाली, हमारा उद्धेश्य सफल हो चुका था। पूर्वांचल प्रहरी, असम के मालीक श्री जी.एल.अग्रवाल उन दिनों कोलकाता के असम हाउस में ही ठहरे हुवे थे, उनसे मुलाकत करने असम हाउस गया, उन्होंने बताया कि वे इस संबंध में अपने समाचार में कुछ भी नहीं छाप पायेगें, यह बात तो मेरे समझ से बाहार है कि ये अखबार क्या सिर्फ समाज को मुर्ख बनाने के लिये ही चलाते हैं? कई बार कुछ राजनैतिक कारण होते हैं जैसे इन्दीरा गांधी द्वारा जारी आपातस्थिति की घोषणा के समय प्रायः सभी हिन्दी भाषी समाचार केवल ' जनसत्ता' को छोड़कर अपने घुटने टेक दिये थे। रोजना समाचार के नाम पर समाज में अश्लीलता भरे समाचार, सनसनी भरे समाचार, या फिर खुदके समाचार और विज्ञापनों से समाचार पत्रों को पाट कर पाठकों को रोजना मुर्ख बनाने के लिये ही समाचार पत्र नहीं होते, कई बार सामाजिक जिम्मेदारियाँ भी निभाई जाती है, परन्तु ऎसे वक्त ये लोग बगले झांकते नजर आते हैं। ये लोग पत्रकारिता के सारे नियम-कायेदे को तोड़कर सिर्फ विज्ञापन की दुकानदारी चलाते नजर आते हैं। मेरा यह भी मानना है कि विज्ञापन ही समाचार पत्रों की अहम् खुराक है, लेकिन एक-एक इंच समाचार को विज्ञापन के नाम पर बैच देना यह कैसी पत्रकारिता है, इन दिनों मीडियावाले भी कुछ इस तरह का ही करने लगे हैं एक समय में 'आजतक' ने दूरदर्शन वालों को धुल चटा दी थी , आज इन लोगों ने भी समाचार के नाम से घर-घर में अश्लीलता, सनसनी समाचार फैलाने का मानो एक प्रकार से ठेका ही ले लिया हो, पिछले दिनों आदरणीय प्रभु चावलाजी इस विषय की एक बहस में हिस्सा लेते हुये इसे लोकतंत्र का जरूरी हिस्सा करार दिया। कई बार सोचता हूँ, इनकी मानसिकता कहाँ लुप्त हो गई, या फिर हमारी सोच को हमें ही बदलना होगा। हिन्दी समाचार पत्र कि एक और त्रासदी यह है कि रोजना बच्चों से जुड़ी घटनाओं को सेन्सर न कर उस समाचार को रोचक तरीके से प्रस्तुत कर ये लोग दुसरे बच्चों की मानसिकता पर गहरी छाप बना देते हैं। हर वर्ष बच्चों द्वारा की जा रही आत्महत्या के लिये मैं सीधे तौर पर इन समाचार पत्रों, और मीडिया वाले को दोषी ठहराता हूँ। इसमें हमारे समाज के पत्र भी शामिल हैं। मेरी दृष्टि में समाचार पत्र , समाचार खरीदते और पाठकों को बैचते हैं। तो क्यों नहीं इस समूह को भी "उपभोक्ता-कानून" के अन्तर्गत न लाया जाय? इससे न सिर्फ समाचार समुह को अपनी जिम्मेदारी का अहसास होगा, समाज को हम सब मिलकर एक स्वस्थ वातावरण भी दे सकेगें। क्रमश: लेख आगे भी जारी रहेगा, आप अपने सूझाव से मुझे अवगत कराते रहें , अच्छे सूझाव को इस लेख का हिस्सा माना जायेगा। - शम्भु चौधरी , 17.02.2008 शाम 5.25 पिछले भाग यहाँ से पढ़ें:
http://groups.google.com/group/samajvikas

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